प्रउत कैसे आएगा ?




पाप और दुःख मुक्त समाज के निर्माण के लिए

प्रउत कैसे आएगा ?

आचार्य संतोषानंद अवधूत

प्रागैतिहासिक काल से ही मनुष्य सुखी और शांतिपूर्ण जीवन जीने की प्रबल इच्छा से प्रेरित रहा है। उसकी इस इच्छा ने ही विज्ञान और तकनीक को जन्म दिया। मनुष्य जहाँ भौतिक जगत में अधिक सुखी और खुशहाल बनने के लिए सक्रिय है, वहीं मानसिक जगत में भी उसने अनेकों सिद्धांतों और दर्शनों को विकसित किया  है ताकि उसका उसका जीवन और अस्तित्व बेहतर हो सके। 

लेकिन इतने प्रयासों के बावजूद ज्यादातर मनुष्य आज भी पृथ्वी पर अवर्णनीय कष्ट भोग रहे हैं। सभी नर-नारियों के जीवन को तनाव और क्लेश मुक्त करने के लिए कई उपाय सुझाए गए हैं, परन्तु मानव समाज अभी तक इस स्वप्न को साकार नहीं कर पाया है।अधिक से अधिक सुख की तलाश ने आध्यात्मिक प्रयासों के अलावा कई समाजार्थिक सिद्धांतों को भी विकसित किया, जिन्होंने पूँजीवाद, मार्क्सवाद तथा अन्य मतों को जन्म दिया। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कई क्रांतिकारियों ने जन्म लिया और कई क्रांतिकारी घटनाएँ घटींजैसे अनेकों स्वतंत्रता संग्राम, पुनर्जागरण, फ़्रांसिसी क्रांति  और साम्यवादी क्रांतियाँ। इसके अलावा भेदभाव, विषमता और अन्याय को ख़त्म करने के लिए कई और छोटे-बड़े आंदोलन हुए हैं, लेकिन मंजिल अभी भी नजरों से दूर है। 


नैतिकतावादी समाज की स्थापना 

इस वैचारिक विकास का  चरमोत्कर्ष है: प्रगतिशील उपयोग तत्त्व, संक्षिप्त में प्रउत यह समाजार्थिक सिद्धांत है जिसे श्री प्रभात रंजन सरकार (श्री श्री आनंदमूर्ति) ने 1959 प्रतिपादित किया। श्री सरकार ने समझाया कि कैसे प्रउत एक शोषण-मुक्त समाज की स्थापना कर सकता है। उन्होंने मानवता के सम्मुख उपस्थित कई सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक तथा नैतिक मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त किये हैं।  

उन्होंने एक नैतिक एवं विप्लवी समाज (सद्विप्र) की भी कल्पना की है, जिसका उद्देश्य है:


  • केवल नैतिकवानों का शासन
  • आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था
  • सभी के लिए रोज़गार
  • वास्तविक नैतिक,सांस्कृतिक और मानवीय मूल्यों की स्थापना, अर्थात जाति, संप्रदाय, लिंग, भाषा आदि पर कोई  भेदभाव न हो।
  • व्यक्तियों और सामाजिक समूहों के बीच समानता पर आधारित सहयोग। 
  • एक ऐसी स्वायत्त व्यवस्था की स्थापना जो उक्त विप्लवी नैतिक समाज में उभरने वाले किसी भी तरह के सामाजिक संकट से निपट सके।

क्या इन उद्देश्यों को प्राप्ति कभी हो पाएगी या ये मात्र एक सपना भर रह जायेगें ? प्रश्न उठता है कि इन उद्देश्यों की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? मैं इस लेख को इस दृढ़ विश्वास के साथ लिख रहा हूँ कि प्रउत उन सभी चिरकालीन दुविधाओं, चुनौतियों और पहेलियों को सुलझा सकता है जिन्हे हल करने मे मनुष्य अभी तक असफल रहा है। परन्तु इस लेख का उद्देश्य है इस प्रश्न का उत्तर ढूँढना है कि प्रउत को कैसे लागू किया जा सकता है। संक्षेप में कहें तो श्री सरकार ने दो पहलुओं की बात की है :


  • व्यक्ति के नैतिक चरित्र की पवित्रता 
  • भेदभाव रहित सुगठित सामाजिक व्यवस्था 


श्री सरकार ने हमेशा इस बात पर बल दिया कि सिर्फ मानसिक रूप से सबल और दोषरहित नैतिक  चरित्र के लोगों को ही समाजार्थिक प्रबंधन और राजनैतिक शासन की जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए। ऐसे नीतिवादी ही शोषण रहित समाज की स्थापना कर सकते हैं।  इसलिए यह बात स्पष्ट है कि नीतिवादी लोग ही प्रउत को अमल में ला सकते हैं। नीतिवादी कौन हैं ?  नैतिक वह है :


  • जिसकी कथनी, करनी और विचारों मे समानता हैं.
  • जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने आदर्शगत कर्तव्यों का निर्वाह करता है। 
  • जो अपने लक्ष्य  का कभी त्याग नहीं करते। 
जो जिस सीमा तक उपरोक्त सिद्धांतों पर आधारित नैतिकता में स्थापित होगा, वह उतना ही प्रउत की स्थापना के लक्ष्य के नजदीक होगा। 

1959 से अभी तक, विभिन्न वजहों से प्रउतवादी दुनिया में कहीं भी वर्तमान समाज पर अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाएं हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि विभिन्न कार्यकर्मों, विचारगोष्ठियों, किताबों आदि के माध्यम से प्रउत के विचारों का कुछ हद तक प्रचार हुआ है, और कई विशिष्ट हस्तियों ने दुनियाभर इसकी प्रशंसा की है।  परन्तु अभी तक बुद्धिजीवियों या महत्वपूर्ण संगठनों या किसी किसी देश की सरकार ने  प्रउत को गंभीरतापूर्वक नहीं लिया है। इस वजह से प्रउत कहीं भी समाज की मुख्य धारा का हिस्सा नहीं बन पाया है। तब प्रश्न उठता है कि कैसे प्रउत को समाज में प्रभावशाली बना कर एक न्यायोचित समाजार्थिक और राजनैतिक व्यवस्था की स्थापना की जाए ?



श्री सरकार का आह्वान 
कुछ लोग कह सकते हैं कि जब परमात्मा चाहेंगे प्रउत की स्थापना स्वतः हो जायेगी। चूँकि कोई भी परमात्मा की इच्छा का विरोध नहीं कर सकता, इसलिए परमात्मा की इच्छा मात्र से प्रउत की स्थापना ही जायेगी ... इसलिए इस बारे में हमें चिंता नहीं करनी चाहिए, और लोगों के बीच सिर्फ प्रउत की चर्चा और उस पर भाषण करते रहना चाहिए। लेकिन इस तरह की सोच श्री सरकार के विचारों और  कार्यों के बिलकुल विपरीत है। उन्होंने अनेकों बार कहा है कि वे समाज में अविलम्ब एक बड़ा परिवर्तन देखना चाहते हैं। हमने अभी तक उनकी इस उत्कट अभिलाषा को पूरा नहीं किया है। 

अपनी पुस्तकों के माध्यम से दिए अपने अने.कों संदेशों में वे हमें बार-बार मानवता की रक्षा करने और उसका दुःख दूर करने के लिए तुरंत कदम उठाने के लिए कहते हैं। अभी तक उनके ये शब्द हमारे अंदर आध्यात्मिक नीतिवादियों की सरकार स्थापित करने के लिए कोई विप्लवी उत्साह पैदा करने में असफल रहे हैं। बल्कि उपरोक्त अंधविश्वासी नज़रिये ने प्रउतवादियों में मौजूद विप्लवी आग को बुझा दिया है। 
  

आइए नैतिकों को दिए श्री सरकार के कुछ आत्मा को झंकृत कर देने वाले संदेशों को याद करें :

" दुनिया में, पूरे ब्रह्माण्ड में, हवा हमारे पक्ष में बह रही है। मानवता के वर्तमान और भविष्य के लिए कुछ करने का यह सबसे सही समय है। समय के इस नाजुक घड़ी में एक क्षण सौ वर्षों के बराबर है। इस परिस्थिति का -- इस अवस्था का उपयोग कर लो। अपने कर्तव्य को और अधिक उत्साह के साथ करो। अपनी गति को बढ़ाओ। इसमें और अधिक गति होनी चाहिए... 
"दुनिया तेजी से चल रही है, पूरा ब्रह्माण्ड तेज गति से चल रहा है, और मानस जगत भी तेज गति से चल रहा है। हाल ही में इस गति को बहुत बढ़ाया गया है। तुम्हे यह बात समझनी होगी, और कर्तव्यपालन की गति को भी बढ़ाना होगा। इस बदली हुई गति के साथ तुम्हे उचित संतुलन बना कर चलना होगा। सभी ओर मानव मन पर युक्ति और विवेक का प्रभाव होगा। मानवता इस ब्रह्माण्ड पर शासन करेगी। "  (Move With Ever-Accelerating Speed)


"परम पुरुष ने तुम्हे काम करने के हाथ और चलने के लिए पांव दिए हैं; काम करने के लिए शक्ति दी है; व्यवहारिक बुद्धि दी है, ताकि तुम राक्षशों के खिलाफ लड़ने में उनका उत्तम उपयोग कर सको। तुम्हे भाग्य के भरोसे निष्क्रिय नहीं बैठना चाहिए। पूरी ताकत से काम में लगे रहो।" (आनंद वाणी, 1 जनवरी 1977)
" जिस तरह रात के घने अँधेरे के बाद सुबह का आना अटल है, उसी तरह उपेक्षित मानवता के अनंत तिरस्कार और अपमान के बाद एक सुन्दर उज्जवल अध्याय भी आएगा, मैं यह बात जानता हूँ। 
"जो मानवता से प्यार  करते हैं और जो सभी जीवों का भला चाहते हैं उन्हें आलस्य और निष्क्रियता का त्याग कर इसी क्षण से सक्रिय हो जाना चाहिए, ताकि वह शुभ घड़ी जल्द से जल्द आ जाए।" (आनंद वाणी, 1 जनवरी 1977)

" पृथ्वी पर हज़ारों साल पहले अपने आगमन के बावजूद भी मनुष्य एक सुगठित और सार्वभौमिक मानव समाज की स्थापना नहीं कर पाया है। यह किसी भी तरह से मनुष्य की बुद्धि और ज्ञान की महिमा का सूचक नहीं है। तुमने इस संकट को समझा है, इसकी अविलम्ब ज़रूरत को समझा है, पाप के नग्न नृत्य को देखा है और फूट डालने वाली शक्तियों की कपटी और कर्कश अट्टाहास को सुना है, इसलिए तुम्हे बिना देर किये इस पुनीत कार्य में खुद को झोंक पूरी तरह से झोंक देना चाहिए। जब उद्देश्य शुद्ध और महान हो, तो सफलता निश्चित होती है।" (आनंद वाणी, 1 जनवरी 1975)



श्री सरकार के ये सन्देश इस बात की ओर साफ़ इशारा करते हैं कि वे चाहते हैं कि हम प्रउत को जल्द से जल्द वास्तविकता में बदल दें। इतना ही नहीं, अगर इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हम पूरी तरह से जुट जाएँ तो वे हमें सफलता की गारंटी भी देते हैं।

दो आंदोलन 

प्रउत के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए दो आंदोलनों की आवश्यकता है: पहला, एक समाजार्थिक एवं सांस्कृतिक आंदोलन और दूसरा, एक राजनैतिक आंदोलन। समाजार्थिक आंदोलन की अगुवाई करने के लिए श्री सरकार ने समाजार्थिक समूहों, जिन्हे वे 'समाज' कहते हैं, के विचार का प्रतिपादन किया है, जैसे मालवा समाज, असि पंजाबी समाज, हड़ौती समाज आदि। समान आर्थिक समस्यायें, समान आर्थिक सम्भावनाएँ, विशिष्ट सांस्कृतिक समानताएं, भावनात्मक विरासत, और समान भौगौलिक विशेषताओं जैसे कुछ आवश्यक कारकों पर आधारित  इन समाजों के माध्यम से वे चाहते हैं कि हम क्षेत्र विशेष के साथ भावनात्मक रूप से जुड़े। इन समाजार्थिक ईकाइयों के जरिये श्री सरकार  एक शोषण विरोधी समाजार्थिक और सांस्कृतिक आंदोलन को जन्म देना चाहते हैं। 



प्रउत आम लोगों को अर्थशक्ति देने की वकालत करता है। प्रउत का उद्देश्य है हर किसी को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना। प्रउत के सिद्धांत और नीतियों  के अनुसारस्थानीय लोगों को अपने क्षेत्र के लिए योजना बनाने और उसके आर्थिक विकास में संलग्न किया जाना चाहिए। इसका कारण है कि स्थानीय लोग अपनी आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को बेहतर जानते हैं। आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिए उन्हें अपने क्षेत्र की आर्थिक गतिविधियों में सीधे हिस्सा लेना होगा। 

पतनोन्मुख अपसंस्कृति के खिलाफ संघर्ष व्यक्ति में शोषण के खिलाफ लड़ने की भावना पैदा करता है। सांस्कृतिक और भावनात्मक विरासत की रक्षा करना महत्वपूर्ण है क्योंकि या यह लोगों को एक मंच पर इकठ्ठा करता है और उन्हें अनैतिक कुशासन के खिलाफ मजबूती से संघर्ष करने के लिए सक्षम बनाता है।  

'समाज ' की अवधारणा एक अखंड समाज की स्थापना के उद्देश्य से दी गई है। इसीलिए श्री सरकार ने 'समाज' नाम रखा, अर्थात 'एकताबद्ध होकर साथ चलने वाले लोगों का समूह इस समाज को चलाने के लिए सद्विप्र राज की आवश्यकता है, अर्थात नीतिवादियों की सरकार। इसलिए प्रउत ने एक दूसरे आंदोलन, जो एक राजनैतिक आंदोलन है, का विचार दिया है। 



धीमा क्रमिक विकास नहीं, बल्कि विप्लव 
दूसरा आंदोलन पूरी तरह से राजनैतिक है। 

अपनी पुस्तक 'आनंद सूत्रम्' के अंतिम अध्याय में श्री सरकार बताते हैं कि कैसे विभिन्न समय पर विभिन्न स्थानों पर एक विशेष मानसिकता वाले लोगों का शासन रहता है, और कैसे कालक्रम में वह शासन शोषण, भेदभाव और हर प्रकार की विकृति को जो जन्म देता है। ऐसी स्थिति में नैतिक शक्तियों को इस शोषण को समाप्त कर लोगो की रक्षा करनी पड़ती है। शोषक शासन व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए वे या तो क्रमिक विकास का रास्ता अपनाते हैं या फिर विप्लव का। इसलिए कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रउतवादी आंदोलन तभी सफल हो सकता है जब उसका नेतृत्व नैतिकों के हाथों में होगा। 

यहाँ यह बता देना उचित होगा कि श्री सरकार क्रमिक विकास को नहीं बल्कि विप्लव  को पसंद करते हैं। इसी उद्देश्य से उन्होंने न्यूक्लिअर रेवोलुशन (नाभकीय विप्लव) के बारे में विस्तार से लिखा है। वे कहते हैं:


"बौद्धिक क्रांति का मतलब है आदर्श का प्रचार करना, लेकिन इस तरह आदर्श को वास्तविकता में बदलने में बहुत समय लग जाएगा। पीड़ित मानवता इसके लिए इंतज़ार नहीं करेगी। बौद्धिक क्रांति सिर्फ सिद्धांत में संभव है। 
जब लोगों के एक छोटे या बड़े समूह की आशाएं और आकांक्षाएं लोकतान्त्रिक ढांचे में पूरी नहीं होतीं,  तो एक गैर-लोकतान्त्रिक या रक्तरंजित क्रांति का होना निश्चित होता है। ऐसी क्रांति हालाँकि अप्रिय है, परन्तु उसे टाला नहीं जा सकता। 
भौतिक विप्लव का मतलब है जन कल्याण के खिलाफ जाने वाले सभी तत्त्वों के खिलाफ संघर्ष। प्रउतवादी सभी प्रकार की अलगाववादी प्रवृतियों और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ विप्लव के एक नए युग का शुभारम्भ करेंगें। यदि देश का कानून इतना शक्तिशाली नहीं है कि अनैतिकों के व्यवहार को सुधार सके, तो प्रउतवादी कुछ ठोस करेगें।" (डिस्कोर्सेस ऑन प्राउट) 



"जो देश अपने उपनिवेशों का शोषण करते थे, वे लोकतान्त्रिक ढांचे के भीतर अपने लोगों का कल्याण करने का प्रयास करते थे, लेकिन यदि वे लोकतान्त्रिक ढांचे के बाहर रह कर तथा श्रमिक विप्लव का रास्ता अपना कर सामाजिक कल्याण में योगदान देते, तो वे ज्यादा तेजी से प्रगति करते। दरअसल लोकतान्त्रिक ढांचे में लोगों की प्रगति बहुत धीमी होती है। इसे विप्लव नहीं कहा जा सकता; यह 'ईवोलूशन' अर्थात क्रमिक बदलाव है। 
यदि अविकसित देश विप्लव के रास्ते से दूर रहते हैं और धीमे बदलाव की राह अपनाते हैं, या जानबूझ कर लोकतान्त्रिक समाजवाद तथा कल्याणकारी राज्य की अवधारणाओं के दोषों को नजरअंदाज करते हैं, तो अपने  लोगों का कल्याण करना उनके लिए हवाई किले बनाने के समान होगा। " (शूद्र विप्लव और सद्विप्र समाज)



"एक युग से दूसरे युग में परिवर्तन प्राकृतिक परिवर्तन, क्रमिक परिवर्तन या विप्लव के जरिये हो सकता है। प्राकृतिक बदलाव या क्रमिक बदलाव क्षत्रिय युग से विप्र युग और विप्र युग से वैश्य युग में परिवर्तन कर सकता है, लेकिन वैश्य शोषण को समाप्त करने के 
 लिए अत्यधिक शक्ति लगाने की नितांत आवश्यकता है।" (न्यूक्लिअर रेवोलुशन)

"जो साहसपूर्वक इस सच्चाई को स्पष्ट भाषा में कहते हैं --जो कहते हैं, "इस बंधन को तोड़ दो!" -- उनका मार्ग विप्लव का मार्ग है।  और जो कहते हैं, " सबकुछ धीरे-धीरे किया जाएगा...  इतनी जल्दी क्यों ?" -- उनका रास्ता है क्रमिक परिवर्तन का रास्ता।  वे कभी कोई महान काम पूरा नहीं कर सकते।" ( शोषण और अपसंस्कृति) 

                                                        
नैतिकों की सरकार 

जब सत्ता नैतिकों के हाथों में आ जाएगी, तो वे संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर विभिन्न समाजों की स्थापना करेगें, और उनके विकास के लिए प्रक्रिया बनायेगें। कानूनी समर्थन के बिना किसी भी समाज के लोगों के आर्थिक विकास के लिए सही मायने में योजना नहीं बन सकती। इसलिए इस लेख का बल इस बात पर है कि कैसे अनैतिकों के हाथ से सत्ता छीन कर प्रउतवादियों का शासन स्थापित किया जाए।


श्री प्रभात रंजन सरकार के लिए नेतृत्व सबसे महत्वपूर्ण विषय है। नेता ही किसी ख़राब या अच्छी व्यवस्था को स्थापित करता है। अगर नैतिक विप्लवी आंदोलन का नेतृत्व करते हैं तो सही अर्थ में एक मानवीय सामाजिक व्यवस्था की स्थापना होगी। इसलिए अनैतिकों से सत्ता छीनने के लिए प्रउतवादियों को कठोर नैतिकतावादी होना होगा। तभी एक सच्ची प्रउतवादी सरकार अस्तित्व में आएगी। स्वार्थी नेता कभी भी निस्वार्थ रूप से काम नहीं कर सकते और इसलिए वे हमेशा अपने ही सुख और भलाई से मतलब रखते हैं। वे कभी भी नैतिकों और प्रउतवादियों को कभी सत्ता में आने नहीं देंगें।  यही कारण है कि प्रउतवादियों पर दशकों तक हुए अत्याचार के बावजूद, किसी भी जाने-माने सामाजिक, राजनैतिक या व्यावसायिक नेता ने खुलकर प्रउतवादियों का समर्थन नहीं किया है। पचास से अधिक लोग अभी तक मारे जा चुके हैं और कई खूनी घटनाएँ घट चुकी हैं, लेकिन अभी तक किसी भी विख्यात व्यक्ति ने इसके ऊपर गंभीरता से विचार करने का कष्ट नहीं किया है। 


इतिहास इस बात का गवाह है कि क्रांतिकारी आंदोलनों ने पहले राजनैतिक सत्ता पर कब्ज़ा किया है और फिर उस व्यवस्था को लागू करने का प्रयास किया है जिसके लिए वे संघर्ष कर रहे थे। इसलिए कि कोई भी व्यवस्था या प्रणाली या सिद्धांत तब तक लागू नहीं होगा जब तक कि उसका समर्थन करने वाली  सरकार सत्ता में आकर उसके क्रियान्वयन के लिए उचित व्यवस्था नहीं करती। अतः प्रउतवादियों की सरकार प्रउत के प्रचार-प्रसार और उसकी स्थापना के लिए परमावश्यक है। विरोधी सरकार के शासन में रहते हुए प्रउत को लागू नहीं किया जा सकता; इसके लिए प्रउत-अनुकूल सरकार का होना अनिवार्य है। पूंजीपतियों के पैसों पर पलने वाली और अपने अस्तित्व के लिए पूरी तरह से उन पर निर्भर सरकार कभी भी प्रउत और प्राउटिष्टों के अनुकूल नहीं हो सकती। इसलिए वक्त की मांग है कि प्राउटिष्ट अपनी सरकार बनाएं। 


एक कदम आगे की ओर 

चलिए सबसे पहले समाज आंदोलन की चर्चा करें। समाज आंदोलन लोगों को प्रेरित करता है कि वे खुद को सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से सबल करें। जब सरकार उनकी मांगों को मान लेती है और उस सम्बन्ध में कानून बना देती, तब जाकर वे मूर्त रूप लेतीं हैं। वर्ना सामाजिक विषमता, आर्थिक विषमता और सांस्कृतिक भ्रष्टता बनी रहती है, जैसा कि हम अभी देख रहे हैं। इसी वजह से श्री सरकार ने प्रउतवादियों को सत्ता में लाने के लिए एक राजनैतिक आंदोलन परिकल्पना की थी -- मात्र यही एक मार्ग है।

प्रउतवादियों की सत्ता प्रउत की स्थापना की ओर एक कदम होगी। प्रउत के अनुकूल सरकार प्रउत के सिद्धांतों और नीतियों को अमल में ला सकती है। ऐसी सरकार का अभाव ही एक मुख्य कारण है कि प्राउटिष्ट संस्थाएँ तेज गति से आगे नहीं बढ़ पा रहीं हैं। एक हितैषी और सहायक सरकार सैद्धांतिक विप्लवी गतिविधियों को बल देने के लिए महत्वपूर्ण है। इसलिए प्रउतवादी सिद्धांतों को गति देने और उन्हें सफल बनाने के लिए नैतिकों अर्थात प्राउटिष्टों का शासन होना आवश्यक है। समाज आंदोलन इस काम को सुगम बनाने में मदद करेगा। दोनों आन्दोलन -- राजनैतिक तथा समाजार्थिक एवं सांस्कृतिक -- आवश्यक हैं और एक दूसरे के पूरक हैं। 


राजनैतिक आंदोलन शुरू करने के लिए एक स्पष्ट दृष्टि की आवश्यकता है। 1968 में श्री श्री प्रभात रंजन सरकार ने एक राजनैतिक दल का गठन किया जिसका नाम था  -- प्राउटिष्ट ब्लाक, इंडिया ( पी बी आई ) । पिछले सालों में यह दल अपेक्षित गति और शक्ति के साथ सक्रिय नहीं रहा और परिणामस्वरूप भारतवर्ष के राजनैतिक मानचित्र पर अपने लिए जगह नहीं बना पाया है। लेकिन  पी बी आई के वर्तमान कार्यकर्ताओं ने अनैतिक शक्तियों के खिलाफ आरपार की लड़ाई छेड़ने का संकल्प ले लिया है। 

   

आर्थिक और राजनैतिक शक्तियों को अलग-अलग होना चाहिए। दोनों शक्तियाँ एक ही संस्था को देना बुद्धिमानी नहीं है। इसलिए समाज की गतिविधियों के माध्यम से अर्थशक्ति स्थानीय लोगों के हाथ में निहित होनी चाहिए और वे ही इस मामले में सर्वोच्च होने चाहिए। ऐसा क्यों, यह समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि आज समाज में 'जो सक्षम होगा, वो बचेगा'  का सिद्धांत हावी है, जिसकी वजह से लोग असहाय और कमज़ोर के कष्ट को प्राकृतिक या स्वाभाविक मानते हैं और इससे आहत नहीं होते। श्री सरकार ने इस धारणा को यह कह कर तहस-नहस कर दिया कि हर जीव का दो तरह का मूल्य है: पहला, उनके अस्तित्व का अपार मूल्य और दूसरा, उपयोगिता मूल्य अर्थात समाज के लिए उनकी उपयोगिता।


चूँकि अभी भी सामूहिक मानसिकता पर 'जो सक्षम होगा, वो बचेगा'  का  सिद्धांत हावी  है, इसलिए अभी तक व्यवहारिक जीवन में मनुष्य के आस्तित्विक मूल्य को महत्व नहीं दिया गया है। इसलिए जिसने भी अधिक हुनर, ज्ञान या क्षमता प्राप्त की है, उसने बेहिचक दूसरों को दबाया, उत्पीड़ित और शोषित किया है। यही नहीं, वे  बड़े जोर-शोर से अपने काम को यह कह कर सही ठहराते हैं कि उनकी संपत्ति उनकी प्रतिभा और मेहनत का परिणाम है, और दूसरों को भी उनकी तरह संघर्ष करने और सफल होने के लिए समान अवसर उपलब्ध है। दिलचस्प बात यह हैं कि पहले सफल डाकू भी अपने सामाजिक  अपराधों सही ठहराने के लिए इसी तरह का तर्क देते थे। 

श्री सरकार इस वैचारिक कपटता या दोगलेपन को स्वीकार नहीं करते। अगर परमात्मा एक छोटे से छोटे असहाय जीव के जीवन की परवाह करते हैं, तो  मनुष्य ऐसा क्यों न करे ? किसी भी को मनुष्य को क्या अधिकार है कि वह दूसरों को जीवित रहने के अधिकार से वंचित करे। परम दयालु परमात्मा जानते हैं कि एक शिशु के पाचन अंग अविकसित हैं, इसलिए वे उसके पैदा होने से पहले ही माता के स्तनों में उसके लिए सुपाच्य दूध पैदा कर देते हैं। इसी तरह परमात्मा जीवित रहने के अधिकार के मामले में एक  पापी के साथ भी भेदभाव नहीं करते हैं। हमें सृष्टि की सभी वस्तुओं और जीवों को परमात्मा की अभिव्यक्ति के रूप में देखना होगा। इसलिए हमें सभी को उनके अस्तित्व की गारंटी देनी होगी। यही कारण कि श्री सरकार ने आर्थिक शक्ति और आर्थिक अधिकारों की सभी को गारंटी दी है, ताकि हर कोई आत्मनिर्भर बन सके और कोई भी यह न सोचे कि संसाधनों और अवसरों की कमी के कारण उसके जीवन का विकास नहीं हो पाया। अतः हमें एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करनी होगी जिसमे हर कोई गरीबी, दमन और शोषण की चिंता किये बिना सम्मान के साथ जी सके। इसलिए प्रउत का समाज आंदोलन आर्थिक शक्ति को आम आदमी के हाथों में देता है। 
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राजनैतिक शक्ति 
लेकिन जहाँ तक शासन और प्रशासन का सवाल है, उसे आर्थिक शक्ति की तरह सभी को नहीं सौंपी जा सकती। किसी भी 
ऐरे-गैरे नहीं बल्कि सिर्फ नीतिवादियों के हाथों में ही शासन की बागडोर दी जानी चाहिए। जिस व्यक्ति का नैतिक आधार मजबूत नहीं है, वह कभी भी सही रास्ते से भटक कर गिर सकता है। जो लोग भी शासन और प्रशासन में हों उनमे नैतिक और आध्यात्मिक गुण जरूर ही होंने चाहिए। इसलिए प्रउत का राजनैतिक आंदोलन सिर्फ और सिर्फ नैतिकों के हाथ में ही होगा । इसमें अन्य लोग कार्यकर्ता और मतदाता की भूमिका में होंगे, ना कि नेता या पदाधिकारी की भूमिका में।


इस अंतर को बनाये न रख पाने के दुष्परिणाम आज देखे जा सकते हैं। आज धन और सत्ता कुछ हाथों में ही केंद्रित हो गए हैं, जिसके कारण चारों ओर गरीबी और अभाव है। ये आर्थिक शक्तियाँ राजनीति को भी नियंत्रित कर रहीं हैं। वास्तव में आर्थिक और राजनैतिक दोनों ही शक्तियाँ लोगों के एक ही समूह के हाथों में केंद्रित हो गईं हैं। इसके अलावा, सरकार  ही सभी वित्तीय संसाधनों का नियंत्रण करती है। जाहिर तौर पर केंद्र सरकार का ही आर्थिक और राजनैतिक शक्तियों पर नियंत्रण है। परिणामस्वरुप यह शिकायत हमेशा बनी रहती है कि केंद्र सरकार राज्यों को धन आवंटन में भेदभाव करती है। जब अर्थव्यवस्था लोगों द्वारा नियंत्रित होगी, तो स्थानीय लोगों का धन के उत्पादन और उपयोग पर पूर्ण नियंत्रण होगा, क्योंकि वे अपना हित बेहतर समझते हैं। अर्थशक्ति के स्थानीय लोगों के हाथों में आ जाने से गरीबी, अभाव और शोषण का हमेशा के लिए खात्मा हो जायेगा। 

आर्थिक विषमता से निपटने के लिए अर्थव्यवस्था को विकेन्द्रित करने की आवश्यकता है, जिसके लिए प्राउटिष्ट यूनिवर्सल ( प्रउत संगठनों और आंदोलनों की शीर्ष संस्था) ने भारतवर्ष में 44 समाज आंदोलन शुरू किये हैं। लेकिन देश की एकता और संरचनात्मक ढांचे को बनाये रखने के लिए एक राजनैतिक इकाई है अर्थात भारतवर्ष। इस तरह 44 समाजार्थिक इकाइयों या समाजों को समायोजित करने के लिए एक भारत सरकार। इसलिए हमें दोनों शक्तियों के बीच विभाजन के महत्व और आवश्यकता को समझना होगा और उसी के अनुसार पूरी व्यवस्था को पुनर्गठित करना होगा। 

राजनीति सिर्फ नैतिकों का कार्यक्षेत्र रहेगी, जबकि अर्थव्यवस्था स्थानीय लोगों के हाथों में होगी। दूसरे शब्दों में, राजनैतिक शक्ति का केंद्रीकरण और आर्थिक शक्ति का विकेंद्रीकरण।


चुनाव 

शुरुवाती दिनों से ही श्री सरकार ने चुनावों में भाग लेने के लिए कार्यकर्ताओं को बनाना और प्रेरित करना शुरू कर दिया था। उन्होंने ऐसा करना क्यों जारी रखा ? इसका कारण था कि इस तरह कार्यकर्ताओं को समाज में जाकर लोगों के कष्ट देखने और सुनने को मिलते थे। ऐसा करने से उनमें यह सोच जागृत होती थी लोगों के कष्ट को प्रउत की मदद से कैसे दूर किया जाए और उनका प्रउत के प्रति समर्पण बढ़ता था। इसके अलावा आर्थिक अभाव और भ्रष्ट लोगों के हिंसक आघात के बावजूद काम को जारी रखने के संघर्ष ने उनमें साहस और नेतृत्व के गुण पैदा किये। श्री सरकार अपने लेख 'न्यूक्लिअर रेवोलुशन' में कहते हैं कि लोगों को संगठित करने के विप्लवी प्रयास की प्रक्रिया से नेताओं का जन्म होता है। 



पी बी आई चुनावों के दौरान चलने वाला तीन महीनों का कार्यक्रम नहीं होगा। जन प्रतिनिधि लोगों के मुद्दों को लेकर सालभर और साल दर साल लड़ना सीखेंगे। वे लोगों को खुद के लिए सोचना सिखायेगें; उन्हें अपनी भावनाओं को व्यक्त करना और पी बी आई के माध्यम से अपने अधिकारों और सपनों के लिए लड़ना सिखायेगें। इसके माध्यम से लोग एक बड़ी ताकत बन कर न सिर्फ अपने उम्मीदवार को सत्ता में लायेगें बल्कि अपने क्षेत्र में प्रउत को स्थापित करने के लिए लड़ेंगे।  इस तरह भारतवर्ष के प्राउटिष्ट कार्यकर्ताओं और आम जनता का संगठन होगा जो प्राउटिष्टों की एक नई नस्ल को जन्म देगा, जिसे बाधाओं से लड़ने में आनंद आएगा। 'गीता में आध्यात्मिक शिक्षा' पर अंपने  एक प्रवचन में श्री सरकार कहते हैं: 

इसलिए संघर्ष की अनुपस्थित  मृत्यु का ही दूसरा नाम है। तुम्हारे भीतर संघर्ष की यह भावना भावना पैदा करना ही मेरा सतत प्रयास रहा है; मैंने कभी भी संघर्ष विमुखता को प्रोत्साहित नहीं किया है। 

अतः प्राउटिष्टों के सामने आज सबसे  बड़ा काम है संघर्ष के उस भावना को दुबारा जागृत करना। पी बी आई अवश्य ही इस कार्य को ईमानदारी से करेगी। 

पी बी आई और समाज -- समन्वित सहयोग का __________

सरकार बनने से पहले चुनावी स्तर पर समाज की तुलना में पी बी आई की भूमिका निम्नलिखित ढंग से होगी : 

1)  पी बी आई ग्रामीण क्षेत्रों में समाज की भावना को प्रोत्साहित और सुदृढ़ करेगी क्योंकि इन क्षेत्रों में स्थानीय लोगों को अपनी भावनात्मक विरासत से गहरा लगाव होता है। शहरों, नगरों और महानगरों में जहाँ लोग विभिन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आते हैं पी बी आई अखिल भारतीय और वैश्विक भावना को प्रोत्साहित और सुदृढ़ करेगी। यहाँ उद्देश्य होगा लोगों को पी बी आई से जोड़ कर उन्हें एक ऐसे संगठित जनांदोलन में बदल देना है जो भ्रष्ट लोगों को सत्ता से उखाड़ फेंके। 
2)   चुनावों में पी बी आई गुणों के आधार पर सबसे अच्छे उम्मीदवार को चुनने का भरसक प्रयास करेगी। चुनाव क्षेत्र में सबसे अच्छे कार्यकर्ता को चुना जाएगा, अर्थात जो नैतिक हो और जिसमे दुखी मानवता के प्रति निस्वार्थ प्रेम हो। उम्मीदवारों का चुनाव करते समय पी बी आई हमेशा सम्बंधित समाज की सिफारिशों पर गंभीरता  से विचार करेगी, क्योंकि चुनावों के बाद उद्देश्य होगा सम्बंधित समाज के लोगों के विस्तृत और ज़मीनी ज्ञान के आधार पर बनी विकास योजना को कार्यान्वित करना। 
3) 


                                                                   पी बी आई और प्रउत फेडरेशन 

पी बी आई निम्नलिखित अपने पाँचों अग्रणी संगठनों जो अपना पूरा सहयोग देगी:
यू पी एल एफ ( यूनिवर्सल प्राउटिष्ट लेबर फेडरेशन)
यू पी एस एफ (यूनिवर्सल प्राउटिष्ट स्टूडेंट फेडरेशन)
यू पी आई एफ ( यूनिवर्सल प्राउटिष्ट इंटेलेक्चुअल फेडरेशन)
यू पी वाय एफ (यूनिवर्सल प्राउटिष्ट यूथ फेडरेशन)
यू पी एफ एफ (यूनिवर्सल प्राउटिष्ट फारमर्स फेडरेशन)

इन संगठनों के मुद्दों को राजनैतिक मंच पर लाकर पी बी आई उन्हें चर्चा के केंद्र में लाएगा। उनकी माँगों पर पर्याप्त ध्यान आकर्षित करने के लिए ईमानदारी से काम करेगा ताकि विधायिका और प्रशासन उन्हें स्वीकार करें   


पी बी आई का ध्येय 

        आजकल लोग मानते हैं कि अनैतिक और अनुचित साधनों की मदद के बिना राजनीति में सफल होना असंभव है, जिसका मतलब है कि अनैतिक साधनों के बिना संसद या विधान सभा में सीट नहीं जीती जा सकती। भारतीय मानसिकता में बैठे इस मिथक या गलत धारणा को पी बी आई तोड़ेगी। राजनीति में नैतिकता की इस विराट शून्यता को भरने के लिएएक स्पष्ट दृष्टि और पांच कार्यों को करने के संकल्प के साथ पी बी आई आई है

1)   राजनीति में ध्रुवीकरण करने का प्रयास करना। समाज को स्पष्ट सन्देश जाना चाहिए कि सिर्फ नीतिवादियों को ही राजनीति में प्रवेश की अनुमति होगी।  इसलिए नैतिकता किसी भी राजनैतिक कार्यकर्ता की न्यूनतम योग्यता होगी। किसी व्यक्ति की नैतिकता को जांचने का पैमाना होगा उसका निजी और सामाजिक व्यवहार। विशेषकर उम्मीदवार की संपत्ति की कड़ाई से जांच की जानी चाहिए। 



2)विक्षुब्ध नैतिकों को संगठित और एकताबद्ध करने का पूरा प्रयास करना। दिखलावटी नैतिक लोग जनता के कष्ट को दूर नहीं कर सकते। अनैतिक और शोषणकारी ताकतों से लड़ने के  लिए जुझारू जोश और विप्लवी उत्साह की आवश्यकता होती ही। 

3)  जन चेतना और  जनांदोलन के माध्यम से लोगों को संगठित एवं संचालित कर एक नवीन सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था के लिए काम करना। 

4)  प्रउत कार्यकर्ताओं और आंदोलनों के बीच सुन्दर  समन्वय स्थापित करने का प्रयास करना। 

5) समान विचारधारा वाले संगठनों और आंदोलनों के बीच एक सहानभूतिपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखने का प्रयास करना। 

इन सभी प्रयासों का उद्देश्य है प्रउत सरकार के रूप में प्राउटिष्टों (नैतिकों) को सत्ता में लाना। 

                                                        
परिणाम 

प्राउटिष्ट सरकार के बन जाने पर भी इस बात की क्या गारंटी है कि वह प्रउत के सिद्धांतों को नीतियों को लागू करेगी ही। इस प्रश्न पर  गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। 

पुराना अनुभव यह बताता है कि नई सरकार अपने घोषित कार्यक्रम से भटक जाती है, और समय के साथ पहले की सरकारों की ही तरह निरंकुश हो जाती है। इसलिए विप्लवी संघर्ष और शोषणकारी सरकारों से सत्ता छीनकर विप्लवी सरकार की स्थापना करने के उदाहरण लोगों को अब प्रेरित नहीं करते। लोग यह मानने लगे हैं कि सरकार तो बदल सकती है, लेकिन वर्तमान व्यवस्था एक स्थायी, हितैषी और पूरी तरह से जन कल्याणकारी व्यवस्था में तब्दील नही हो सकती। 


श्री सरकार इस विषय की गहराई तक  गए हैं और अपनी पुस्तक 'डिस्कोर्सेज ओन प्राउट' में कहते हैं : कोई भी सरकार चाहे वो फासीवादी हो, साम्राज्यवादी हो, तानाशाही,रिपब्लिकन, नौकरशाही या लोकतान्त्रिक, वो निश्चित रूप से दमनकारी बन जायेगी अगर नेताओं या सत्ताधारी दल की मनमानी को रोकने के लिए कोई 'नैतिक शक्ति' न हो। 

इसका मतलब यह है कि श्री सरकार सत्ता के दो केंद्र चाहते हैं: पहला सरकारी सत्ता और दूसरा गैर-सरकारी सत्ता। सरकारी शासन का अर्थ है राष्ट्रीय संविधान और कानून से मान्यता प्राप्त शासन। शासन और प्रशासन की पूरी मशीनरी संविधान और कानून के प्रावधानों की सीमा में काम करती है। अगर कोई चीज इन कानूनों  या प्रावधानों द्वारा स्वीकृत नही है तो वह गैरकानूनी और दंडनीय है। 



इसलिए अगर कोई पदाधिकारी नैतिक नहीं हैतो वह नियम-कानून की आड़ में शोषण और आतंक का साम्राज्य स्थापित कर देगा। उसके अनैतिक काम को कानून के माध्यम से उसी सरकारी मशीनरी के तहत ख़त्म करना सम्भव नहीं है क्योंकि वह मशीनरी उन्ही अनैतिक लोगों के हाथ में है। इसलिए श्री सरकार ने हमें एक ऐसी नैतिक शक्ति की ज़रूरत महसूस करवाई है जो स्वतंत्र हो और सरकारी तंत्र के बाहर हो। वे कहते हैं : इस तरह की नैतिक शक्ति की उम्मीद लोकतान्त्रिक ढाँचे में काम कर रही सरकार से नहीं की जा सकती। गैर-राजनैतिक छोर से ही हम इसकी उम्मीद कर सकते हैं।  

अतः यह स्पष्ट है कि उस वांछित नैतिक शक्ति को सरकार के बाहर से पैदा होना होगा। यह नैतिक शक्ति आम लोगों के लिए हकीकत कैसे बनेगी? इसे समझने के लिए चलिए प्राउटिष्ट राजनीति के स्वाभाव की पड़ताल और विश्लेषण करें।



श्री सरकार दलरहित लोकतंत्र की वकालत करते हैं। इसका कारण है कि विभिन्न राजनैतिक दलों के प्रति वफ़ादारी के कारण जनता भी विभिन्न गुटों में बंट जाती है, और ये दल भी उन्हें बाँट कर रखना चाहते हैं क्योंकि तभी वे सत्ता हासिल कर सकते हैं। वर्तमान दलीय लोकतान्त्रिक प्रणाली में कई दोष हैं जो हर समझदार व्यक्ति को मालूम हैं। सबसे बड़ा दोष तो यह है कि लोग पार्टी को वोट देते हैं और पार्टी अक्सर ऐसे लोगों को उम्मीदवार बनाती है जो पीड़ित जनता के अधिकारों के लिए संघर्ष करने योग्य नहीं होते। पार्टी ऐसे लोगों को ही उम्मीदवार बनाती है जो चुनाव जीत सकते हैं। इस बात से पार्टी को फर्क नहीं पड़ता कि वे अनैतिक हैं  और गैरकानूनी तरीके जैसे पैसा और बल प्रयोग का सहारा लेते हैं। पार्टी के समर्थक प्रत्याशी की नैतिकता की परवाह किये बिना उसे वोट दे देते हैं। परिणामस्वरूप विधायिका दागदार चरित्र के लोग  से भर जाती हैं। धन और सत्ता को प्राप्त करने केलिए नैतिकता को ताक पर रख कर. ये राजनैतिक दल आपस में अपवित्र गठबंधन भी बना लेते हैं और लोकतंत्र की आत्मा को मार डालते हैं। इन परिस्थितियों में श्री सरकार ऐसे दलविहीन लोकतंत्र की वकालत करते हैं, जिसमे लोग उम्मीदवार की योग्यता के आधार पर उसे चुनेगें। 


फिर भी यह प्रश्न तो रहता ही है कि दलविहीन लोकतंत्र में चुने गए लोग वर्तमान दलगत व्यवस्था में चुने गए लोगों की तरह अपने चुनावी वादों को पूरा करेगें या नहीं ? इस बात की क्या गारंटी है कि चुने जाने पर वे अपनी नैतिकता को बचाये रखेगें

इस पर नियंत्रण रखने के लिए श्री सरकार ने शक्ति के एक दूसरे  केंद्र  अवधारणा दी है -- सरकार से बाहर नैतिक शक्ति का एक स्वतंत्र केंद्र। शक्ति का यह केंद्र जनता  के समर्थन से पदाधिकारियों पर सुधारात्मक प्रभाव डालेगा। जनकल्याण के प्रति नीतिवादी नेताओं के निस्वार्थ समर्पण के कारण लोग इस नैतिक नेतृत्व को स्वीकार करेंगे। सभी प्रकार के शोषण के विरूद्ध संघर्ष करने वाले इन नीतिवादी नेताओं में लोग न सिर्फ अपना विश्वास दिखाएंगे, बल्कि स्वयं भी उनकी तरह बनने के लिए प्रेरित होंगे।यह नैतिक आंदोलन बदलाव के लिए आम समर्थन जुटाएगा और नेतृत्व को सरकार और प्रशासन पर प्रभावकारी एवं फलदायक प्रभाव डालने में सक्षम बनाएगा। 


एक स्थिति आएगी जब सरकार की सभी संस्थाएँ शक्ति के इस केंद्र को नजरअंदाज नहीं कर पाएंगी। सरकारी पदाधिकारी जनता द्वारा समर्थित इस नैतिक नेतृत्व से हमेशा सावधान रहेगें। उन्हें हमेशा इस बात का ध्यान रहेगा कि अगर वे नैतिक सत्ता को नहीं मानेगें तो उन्हें राजनैतिक सत्ता से उखाड़ फेंका जायेगा। इसलिए वे हमेशा इस गैर-सरकारी नैतिक सत्ता के प्रति जवाबदेह रहेंगें।

भारतवर्ष में अतीत में महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण, और हाल ही में अन्ना हज़ारे इस तरह गैर-राजनैतिक परन्तु लोकप्रिय नैतिकतावादी राजनैतिक समर्थन के कुछ प्रमुख उदाहरण हैं। उनके नेतृत्व में चलाये जा रहे किसी भी संगठन में उनका कोई  औपचारिक पद नहीं था, फिर भी पूरा आंदोलन उनके नियंत्रण में था और लोगों ने उनका अनुसरण किया जब तक कि लोगों ने यह महसूस किया की उनका नेता उनकी भलाई के लिए समर्पित है। लेकिन इन नेताओं ने कुछ गंभीर गलतियाँ कीं जिस वजह से नैतिक मार्ग निर्देशक की उनकी भूमिका धूमिल हो गई।


महात्मा गांधी स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस को एक राजनैतिक दल के रूप में काम करने से नहीं रोक पाये, और यह बात उनकी असफलता का कारण बनी। इससे पहले, वे देश का विभाजन नहीं रोक पाये हालाँकि उन्होंने यह घोषणा की थी कि देश का विभाजन उनके मृत शरीर पर ही होगा। आज़ाद भारत में कांग्रेस पर अवसरवादी नेताओं ने कब्ज़ा कर लिया जिन्होंने गांधी जी की एक नहीं सुनी। 

जयप्रकाश नारायण ने जनता पार्टी के सत्ता में आने के पश्चात -- जो उन्ही की मेहनत का परिणाम था -- जनता के उन सभी संगठनों को भंग कर दिया जो चुनाव के पूर्व सक्रीय थे और जनता पार्टी की शानदार जीत के लिए जिम्मेदार थे। इसलिए सत्ता में आने के बाद पार्टी में किसी ने उनकी नहीं सुनी और वे भ्रष्ट हो चुकी पार्टी के पतन को देखकर बड़े दुःख के साथ इस दुनिया  से गए। उन्हें जनता के गैर-राजनैतिक संगठनो को बनाये रखना चाहिए था और उनका उपयोग सरकार पर दबाव बनाये रखने के लिए करना चाहिए था। इससे केंद्र में बैठे शासक नैतिक शक्ति के इस केंद्र के प्रति जवाबदेही महसूस करते और यह उनके दुष्कर्मो के लिए एक बहुत बड़ा खतरा होता। ऐसे नैतिक केंद्र के अभाव में जनता पार्टी  का शासन अपने कार्यकाल को पूरा करने से पहले ही ख़त्म हो गया। 

इसी तरह अन्ना हज़ारे के इर्द-गिर्द जनता का एक गैर-सरकारी आंदोलन उभरा। इसे भी बड़े पैमाने पर आम जनता का सहयोग मिला लेकिन जल्द ही इस पर राजनैतिक महत्वकांक्षा रखने वाले लोगों ने कब्ज़ा कर लिया। परिणामस्वरूप आंदोलन धराशायी हो गया और इसे जन समर्थन भी नहीं रहा; अन्ना हज़ारे आज पूरी तरह से किंकर्तव्यविमूढ़ हैं। पीछे मुड़ कर देखें तो पता चलता है कि अन्ना हज़ारे अपने साथियों का स्वाभाव और योजना समझ नहीं पाए।

श्री सरकार ने निर्विवाद नैतिक नेतृत्व वाले शक्ति के एक ऐसे केंद्र की अवधारणा दी है जो सरकारी मशीनरी से बाहर होगा। नैतिकों की इस सत्ता को लोग सहज ही स्वीकार लेंगें। यह नैतिक नेतृत्व एक व्यक्ति द्वारा नहीं बल्कि कठोर नैतिकों के समूह द्वारा दिया जायेगा। सांसद और विधायक अपना काम करेंगे और नैतिकों का सामूहिक नेतृत्व उनके कामकाज पर नज़र रखेंगे। अगर वे देखगें कि कोई विधायक या सांसद अपने घोषणा पत्र के अनुसार काम नहीं कर रहा है तो वे उस पर नैतिक दबाव डाल कर इस्तीफा देने, या ज़रूरत पड़ने पर राजनीति छोड़ने के लिए मजबूर कर देंगें। नैतिक शक्ति का यह केंद्र समय के साथ स्वाभाविक ढंग से विकसित और शक्तिशाली होता जायेगा, और इसके नेतृत्व में जब जनता सशक्त हो जाएगी तो यह एक व्यवहारिक सत्य बन जायेगा। ऐसा गैर-सरकारी नैतिक शक्ति केंद्र जनता जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों, कर्मचारियो, न्यायधीशों आदि को  अनैतिक काम करने से रोकेगा। 
                                                  
नेतृत्व के दो स्तर  

तो हमारे पास नेतृत्व के दो स्तर हैं - 1) सरकारी या आधिकारिक नेतृत्व जैसे विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, लेखा परीक्षक, सचिवालय,  पुलिस आदि। और 2) गैर-आधिकारिक सर्व-मान्य  नैतिक शक्ति केंद्र। दोनों एक-दूसरे के पूरक होंगे। अगर सरकारी मशीनरी लोग के हित में काम नहीं करती है, तो यह नैतिक शक्ति केंद्र ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करेगा करेगा कि सरकारी मशीनरी को सुधारना होगा या सत्ता से हटना होगा। ऐसी सामाजिक व्यवस्था ही प्रउत के क्रियान्वयन को सुनिश्चित कर सकती है। ऐसी व्ययस्था में ही किसी को यह डर नहीं रहेगा कि संसद, सरकार और प्रशासन अपने कर्तव्य का पालन नहीं करेंगें। 

नैतिक शक्ति के ऐसी केंद्र के बिना प्रउत को हकीकत में बदलने का सपना बस सपना ही रहेगा। इसलिए पी बी आई में ऐसे नेता होंगें जो चुनाव लड़ेंगे और संसद,विधानसभा आदि में जाएंगे। इसके अलावा ऐसे नेता भी होंगे जो बिना किसी राजनैतिक उद्देश्य के जनता के साथ करेंगे। वे लोगों के सहज,स्वाभाविक और वास्तविक नेता होंगे (ना कि नियुक्त,मनोनीत या चुने गए नेता)।इस तरह इस नैतिक नेतृत्व के कारण लोगों के हित सुरक्षित रहेंगे। आधिकारिक (प्रशासनिक) नेतृत्व हमेशा नैतिक नेतृत्व के प्रति उत्तरदायी रहेगा। 

आज नेतृत्व का दूसरा स्तर पूरी तरह से नदारद है। जनता विभिन्न राजनैतिक दलों के पक्ष और विपक्ष में बंटी, और जो जनता द्वारा चुने जाते हैं उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं है कि जनता उनके खिलाफ हो जायेगी। वे विभिन्न तिकड़में लगा कर जनता में फूट डालना और उसे अपने काबू में रखना रखना चाहते हैं। सभी पार्टियां अपनी अलग-अलग पहचान बनाये रखना चाहतीं हैं और दिन-रात अपना वोट बैंक मजबूत रखने के लिए काम करतीं हैं। सत्ता की राजनीति के इस कुटिल खेल में एक वर्ग जनता का एक वर्ग हमेशा दूसरों के साथ लड़ता रहता है। पार्टियां खुद को चर्चा में रखने और लोगों का समर्थन जुटाने तथा समर्थकों को बनाये रखने के लिए पैसा पानी की तरह बहाती हैं।

इसके अतिरिक्त हर सत्ताधारी दल शराब, नशीले पदार्थों, अश्लीलता और अनैतिक संस्कृति को जनता के बीच बढ़ावा देता है, भले ही वह सार्वजानिक रूप से कुछ भी कहे। असंतुष्ट और विद्रोही लोगों की विप्लवी भावना को इस तरह का पतन ख़त्म कर देता है और वे नैतिक रूप से कमजोर रहते हैं। इसलिए वे अपने शोषण को सहते हैं और दूसरों के शोषण में मदद करते हैं। ये दिशाहीन,आत्मसम्मान विहीन लोग बेईमान लोगों के लिए कोई खतरा नहीं हैं और इसलिए वे बेपरवाह रहते हैं। वे आश्वस्त रहते हैं कि वे सांसद या विधायक के रूप में अपना कार्यकाल पूरा करेंगे।

चूँकि ये बेईमान नेता भांप लेते हैं कि जनता का गुस्सा उन शोषक के खिलाफ भड़कने वाला है जो इन दलों को चुनाव लड़ने के लिए पैसा देते हैं, तो ये राजनेता समाज में तरह-तरह के विवाद पैदा कर लोगों को बेकार के मुद्दों पर बाँट कर रख देते हैं ताकि वे शोषकों के लिए खतरा न बन सकें। दूसरी और ये नेता अपनी सत्ता का बेशर्मी से दुर्पयोग करके अपने संपत्ति को बढ़ाते है ; उन्हें अपने क्षेत्र में जाकर लोगों के सुख-दुःख जानने तक की फुर्सत नहीं रहती।

इस तरह की मानसिकता तभी समाप्त होगी जब सत्ता में बैठे लोगों के मन में भय होगा कि अगर वे अपने चुनावी वादो के खिलाफ गए तो जनता उन्हें एक दिन के लिए भी माफ़ नहीं करेगी। 



अविराम सक्रियता 
प्रउत दर्शन के प्रचार एवं प्रसार के काम नियमित होना चाहिए ना कि साल में एक बार या सिर्फ चुनावी मौसम में। तभी सामूहिक मानसिकता को प्रउत की तरफ मोड़ा जा सकता है। प्रउत के माध्यम से लोगों को सशक्त करना होगा -- उन्हें महसूस होना चाहिए कि इस दर्शन और कार्ययोजना के बल पर ही वे असली आज़ादी हासिल कर सकते हैं। मुक्ति की इस आकाँक्षा को प्रउत शिक्षा के कार्यक्रमों के माध्यम से विकसित और बलवती किया जाना चाहिए। इससे विक्षुब्ध लोगों की इच्छा शक्ति भी मजबूत होगी। इन विक्षुब्ध नीतिवादियों को अपने असंतोष और गुस्से को व्यक्त करने का एक मंच -- नैतिकों का नाभिक -- मिलेगा। वे जितना ज्यादा संगठित और एकताबद्ध होंगे, सामाजिक पुनर्निर्माण के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वे उतने ही अधिक प्रयत्नशील और आक्रामक होंगे। 

परिणामस्वरूप शोषणकारी व्यवस्था को समाप्त करने तथा वास्तविक परिवर्तन लाने के लिए वे अधिक से अधिक साहसिक कार्य करने में सक्षम हो जाएंगे। इस तरह प्राउटिष्ट राजनैतिक आंदोलन एक साफ और सक्षम प्रशासन तथा जन हितैषी शासन देने में सफल होगा और प्रउत एक वास्तविकता बन जायेगा। इस बारे में श्री सरकार कहते हैं ;


अन्याय के विरुद्ध संघर्ष में भी एक आनंद हैं, और वह आनंद ______________ का अभिन्न अंग है। 

यह आनंद न सिर्फ हर प्राउटिष्ट महसूस करे, बल्कि इस पृथ्वी का हर नीतिवादी महसूस करे; यहाँ तक कि अनैतिक लोग भी मन ही मन उस आनंद को प्राप्त करने के लिए तरसें।

चलो श्री सरकार के इस आह्वान का जवाब दें जो उन्होंने आधी सदी पहले 'मानव समाज' (खंड-2) नामक अपनी पुस्तक के अंतिम निबंध 'शूद्र विप्लव और सद्विप्र समाज' में किया :

आज मैं उन सभी विचारवान, आध्यात्मिक, नैतिक, संघर्षशील लोगों से आग्रह करता हूँ कि वे एक सद्विप्र समाज की अविलम्ब रचना कर लें। सद्विप्रों को सभी देशों के लिए काम करना होगा, सभी मनुष्यों की  सर्वांगीण मुक्ति के लिए। इस सताई हुई दुनिया के दबे-कुचले लोग बड़ी बेचैनी से उनके आने के इंतज़ार में पूर्व दिशा की और देख रहे हैं। इन पददलित मनुष्यों की राह से अमावस्या की कालिमा छंटने दो। नए दिन के नए मनुष्य नई दुनिया के नए सूर्योदय के साथ जागें। 


सामान्य प्रश्न 

प्रश्न 1. क्या आप सोचते हैं कि बदलाव के लिए जागरूकता पैदा किये बिना रैली तथ धरना करने और चुनाव लड़ने से प्रउत की स्थापना में मदद मिलेगी ? छोटे पैमाने पर होने वाले धरने, रैली आदि को मिडिया और जनता ज्यादा गंभीरता से नहीं लेती; वे दूसरे छोटे-छोटे मुद्दों पर होने वाली दूसरी रैलियों और धरनों की भीड़ में खो जाते हैं। 

उत्तर. रैलियां और धरने करने तथा चुनाव लड़ने से निश्चित रूप से यह जागरूकता पैदा होगी कि परिवर्तन की ज़रूरत है। मै इस बात से सहमत हूँ कि छोटे पैमाने पर होने वाले धरने, रैली आदि तुरंत कोई बड़ा प्रभाव नहीं पैदा नहीं करते। इसलिए समाधान यही है ज़मीन पर  निरंतर चलने वाले जन जागरण अभियान के एक अंग के रूप में इन रैली,धरनों आदि को  अधिक बड़ा और शक्तिशाली बनाया जाए।  


प्रश्न 2. क्या आप सोचते हो जनता  पी बी आई के आंदोलन का समर्थन करने के लिए आसानी से अदर्शनिष्ठ हो जाएगी ?
उत्तर  आम जनता कभी भी पूरी तरह से आदर्श के प्रति समर्पित नहीं हो सकती। आम लोग सिर्फ समर्थक और हमदर्द हो सकते हैं। जब वे देखते हैं कि कोई आंदोलन उनके दुखों को दूर करने के लिए कुछ कर सकता है, तो वे उससे बड़ी संख्या में जुड़ जाते हैं। मेरा अनुभव यही है कि जो जनता गांधीवाद के नारे लगाती हैं, वह वास्तव में नहीं जानती कि गांधीवाद क्या है। ऐसा ही दूसरे आंदोलनों के कार्यकर्ताओं के साथ भी है। सिर्फ ऊपर बैठे कुछ लोग किसी आंदोलन के उद्देश्य या सिद्धांत को पूरी तरह से समझते हैं। प्राउटिष्टों के मामले में भी ऐसा ही है। हम में से कितने प्रउत की विशेषताओं और सौंदर्य को जानते हैं? ज्यादातर सिर्फ प्रउत शब्द ही जानते हैं, और कि यह सबसे अच्छा दर्शन और सिद्धांत है। उनका विश्वास अधिकतर तो भक्तिभाव और थोड़ा बहुत बौद्धिक समझ पर आधारित होता है।  

प्रउत का प्रतिपादन 1959 में किया गया; 56 साल गुज़र गए हैं। क्या आप यह दावा कर सकते हैं कि भारतवासी प्रउत शब्द भी जानते हैं ? सिर्फ श्री प्रभात रंजन सरकार के कुछ अनुयायी ही इसके बारे में जानते हैं। बाहर के समाज में इसे जानने वालों की संख्या को अँगुलियों पर गिना जा सकता है। 

प्रश्न 3.  क्या आप यह महसूस नहीं करते कि यह बौद्धिक लड़ाई का समय है और भौतिक/शारीरिक संघर्ष का समय नहीं आया है ? दुश्मन से दो-दो हाथ करने से पहले हमें खूब ताकत इकठ्ठा कर लेनी चाहिए। क्या इस समय हमें सिर्फ बुद्धिजीवियों और विचारशील लोगों पर ही ध्यान नहीं देना चाहिए?
उत्तर.  मैं नहीं सोचता कि यह सिर्फ बौद्धिक लड़ाई का ही समय है। ऐसी लड़ाई हम 1959 से लड़ रहे हैं। यह चलते रहना चाहिए परन्तु यह पर्याप्त नहीं है। अगर हम ज़मीन पर काम किये बिना प्रउत पर सिर्फ बौद्धिक चर्चा करते रहेंगे तो प्रउत सिर्फ कुछ लोगों तक ही सिमट कर रह जाएगा, जैसा की अभी तक हुआ है। 
मैंने कभी भी दुश्मन से तुरंत टकराने का सुझाव नहीं दिया है। मेरा पूरा ज़ोर सामूहिक मानसिकता तैयार करने और राजनीति में एक वास्तविक ध्रुवीकरण लाने पर हैं। प्रचार और चुनाव रणनीति का हिस्सा हैं। एक बार जब सामूहिक मानसिकता प्रउत-आधारित परिवर्तन के लिए विकसित और मजबूत हो जायेगी, तब प्रउत सरकार का बनना तय है।  

प्रश्न 4. आज हम देखते हैं कि सही सोच के लोग राजनैतिक दल और राजनेता  का सम्मान नहीं करते। क्या वे पी बी आई को गंभीरता से लेंगें ?

उत्तर.  राजनेताओं और राजनैतिक दलों ने अपने आचरण के कारण अपना सम्मान खोया है। अगर उनके इरादों और कामों में ईमानदारी होगी तो लोग दुबारा से राजनीति का आदर करेंगे। आज यह दुष्टों, बदमाशों की शरणस्थली बनी हुई है। इस स्थिति को उलटना होगा।  पी बी आई इस काम को करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा। 


प्रश्न 5.  आंदोलनों के माध्यम से सरकार पर दबाव डाल कर लोगों की समस्या हल करने में मदद करने से लोग यही सोचेगें कि वर्तमान व्यवस्था ठीक है; और अगर हम अपने प्रयासों में असफल होते हैं तो लोग दूसरे दलों और नेताओं की तरफ मुड़ जाएंगे, जो उद्देश्य प्राप्ति के लिए भले ही भ्रष्ट तरीके अपनाते हों। 

उत्तर.  सरकार पर दबाव डालना रणनीति है, यह समाधान का तरीका नहीं है। यह विप्लवी विचारधारा को मजबूत करने में और विक्षुब्ध शूद्रों को संगठित करने में मदद करेगा। विक्षुब्ध शूद्र का अर्थ है वे बौद्धिक या क्षत्रिय क्षमता संपन्न लोग जो आर्थिक अभाव में अपनी प्रतिभा को अभिव्यक्ति करने का मौका नहीं पाते है। परिणामस्वरुप उनमें विद्रोह की आग धधकती रहती है जो भड़कने के लिए  मौके का इंतज़ार करती रहती है। 
लोग हमें नहीं छोड़ेंगे जब वे देखेंगे कि हम आजकल के व्यवसायिक राजनेताओं की तरह नहीं है। हमारी ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा और सेवाभाव से प्रभावित होकर लोग हमारा समर्थन करेंगे। पी बी आई इसी के लिए खडी  है।

प्रश्न 6.  क्या यह सही नहीं है कि पी बी आई चुनाव लड़े इससे पहले समाज आंदोलन होना चाहिए। स्थानीय अर्थव्यवस्था और संस्कृति की आवश्यकता को प्रचारित करने से प्रउत लोगों में लोकप्रिय हो जायेगा, जिससे आखिरकार चुनाव जीतने में मदद मिलेगी। क्या आप को नहीं लगता पी बी आई के कुछ सीटों पर चुनाव लड़ने को आज की राजनीति ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया जाएगा?
उत्तर. चुनाव लड़ना भी रणनीति का एक अभिन्न अंग है। यह सामूहिक मानसिकता को प्रउत के पक्ष मोड़ेगा और मजबूत करेगा। मुझे ऐसा नहीं लगता कि राजनैतिक आंदोलन से पहले समाज आंदोलन होना चाहिए। उन्हें साथ-साथ आगे बढ़ना होगा। दोनों आंदोलनों का उद्देश्य होना चाहिए प्रउत की स्थापना। दोनों को अक्षरशः एक दूसरे का पूरक होना चाहिए। समाज आंदोलन को भी अपने उद्देश्य के लिए जन समर्थन हासिल करने लिए सामूहिक मानसिकता को अपने पक्ष में मोड़ना होगा। यह सिर्फ बातचीत और चर्चा करने से संभव नहीं है। 

प्रश्न 7. धन और बाहुबल, शराब, जाति और सांप्रदायिक भावनाओं के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण क्या आप नहीं सोचते हैं कि पी बी आई के उम्मीदवार उनके आगे टिक नहीं पाएंगे?
उत्तर. ऐसा नहीं होगा। पी बी आई के उम्मीदवार का पहला गुण है  कि उसमे जीत के लिए दीवानगी हो । हमें पता है कि हमें इन चीजों का सामना करना होगा, लेकिन इसके बावजूद हम जितने के लिए संकल्पित हैं। लेकिन अपनी निस्वार्थ भावना और लोगों के समर्थन की मदद से हम इनका सामना कर लेंगें। कोई भी सत्ता चाहे कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हो, जनता की शक्ति के सामने स्थायी बाधा बन कर नहीं रह सकी है। जन विद्रोह ने बड़े -बड़े तानाशाहों और अत्याचारी शासकों को धूल चटा दी है। अतः जब एक बार विक्षुब्ध और शोषित जनता संगठित और एकताबद्ध हो जाएगी, तब पी बी आई आंदोलन की असली ताकत दिखाई देगी। 


प्रश्न 8.  क्या आप नहीं सोचते कि प्राउटिष्टों को लोगों को आज की समस्याओं का प्रउत आधारित हल बताने में सक्षम होना चाहिए ताकि वे उनके अंदर अपने प्रति विश्वास पैदा कर सकें ?
उत्तर. उन्हें समस्याओं के हल की जानकारी होनी चाहिए, लेकिन ऐसा सिर्फ कुछ प्राउटिष्टों के लिए ही संभव है, जिन्हे हम अदर्शनिष्ठ नेता कह सकते है। जनता और जनता के नेता आंदोलन को समर्थन और सहानभूति देते हैं। हालाँकि वे प्रउत की मूल भावना को जानते हैं, लेकिन उन्हें दर्शन और आदर्श की गहरी समझ नहीं होती।  आम जनता में लोकप्रिय नेता और अदर्शनिष्ठ नेता दोनों मिलकर प्राउटिष्ट आंदोलन को विजय का मुकुट पहनाएंगे। 


प्रश्न 9. आपके विचार से लोगों तक पहुँचने के क्या- क्या माध्यम हो सकते हैं?
उत्तर. सभी माध्यम जैसे धरना,ज्ञापन, भूख हड़ताल, विरोध प्रदर्शन, और घर-घर पहुँच कर जन सम्पर्क आंदोलन को आम जनता तक पहुँचाने और उसके लिए जन समर्थन जुटाने  में मदद करेंगे। इस माध्यम से हम लोगों की समस्यों को उठायेंगे और प्रशासन पर उन्हें हल करने के लिए दबाव डालेंगे और ज़रूरत होगी तो जेल भी जाएंगे। 

प्रश्न 10. लोगों को नई व्यवस्था की आवश्यकता महसूस करवाने के क्या तरीके होंगे?
उत्तर  जब हम अपनी विचारधारा का प्रचार करगें और जनता के लिए लड़कर उन्हें उनकी समस्याओं के कारणों के बारे में जागरूक कर देंगें, तो वे समझ जायेगें कि वर्तमान व्यवस्था को बदले बिना उनकी समस्याओं का स्थायी हल नहीं हो सकता, बल्कि वे बढ़ती ही जाएंगी।


प्रश्न 11. सामूहिक मानसिकता को प्रउत के पक्ष में बदलने के लिए किस चीज़ की आवश्यकता है?
उत्तर. सामूहिकता मानसिकता को बदलने के लिए सबसे अच्छा तरीका है विक्षुब्द शूद्रों को संगठित और एकताबद्ध करना ताकि नैतिक और अनैतिक नेता दो अलग-अलग खेमों में बंट जाएँ। सामूहिक मानसिकता प्रतिवाद और संश्लेषण के माध्यम से विकसित होती है। इसलिए पी बी आई प्रतिवाद को मजबूत करने के लिए ईमानदारी और गंभीरता से काम करेगी। साथ ही भाषणों और जनता से सीधे संपर्क के माध्यम से प्रउत पर आधारित नई व्यवस्था की वकालत कर संश्लेषण को लोकप्रिय बनाने के लिए काम करेगी। जब लोग देखेगें कि वर्तमान व्यवस्था उनके कष्टों को दूर करने में असमर्थ है, और प्रउत व्यवस्था के पास उनकी समस्याओं का व्यवहारिक समाधान है, तो आवश्यक सामूहिक मानसिकता प्रउतवादी आदर्शों के पक्ष में विकसित और मजबूत होगी, जिससे प्रउत सामाजिक,आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक क्षेत्र में एक प्रभावशाली विचार बन जाएगा।

प्रश्न 12.  आप लगातार विप्लव और विप्लवियों की बात कर रहे हैं। इन विवादास्पद शब्दों से आपका क्या तात्पर्य है?

उत्तर. 'विप्लव' शब्द के महत्व और अर्थ को लेकर किसी तरह का विवाद या भ्रम नहीं है। इसका अर्थ है मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियों का जबरदस्त प्रयोग।
एक विप्लवी किसी तरह की भवजड़ता को प्रश्रय नहीं देगा। उनका मन सभी तरह के 'वादों', पूर्वाग्रहों और मानसिक कमज़ोरियों से मुक्त रहेगा। वे किसी आसक्ति या दुर्भावना मैं नहीं पड़ेंगे। उनका मन हमेश लक्ष्य पर टिका रहेगा।
वे वास्तविक आध्यात्मिक मनुष्य होंगे जिनके जीवन में किसी पाखंड का स्थान नहीं होगा। वे कभी भी अध्यात्म को व्यवसाय नहीं बनाएंगे। वे अपनी पूजा नहीं करवाएंगे बल्कि समाज के उन लोग का भी सम्मान करेंगे जिनका कोई सम्मान नहीं करता। परमात्मा के प्रति अपने प्रेम से प्रेरित हो कर वे लगातार काम में लगे रहेंगे।
सामाजिक जीवन में उनसे किसी की पीड़ा सहन नहीं होगी और वे तमाम बाधाओं के बावजूद उनके आंसू पोंछेंगे तथा उनके लिए संघर्ष करेंगे। जो लोग समाज में अस्वीकृत और घृणित  समझे जाते हैं, वे उनके सबसे प्रिय होंगें। वे समाज के पीड़ितों के व्यक्तित्व को बनाएंगे और उन्हें उनके अधिकारों के लिए लड़ना सिखाएंगे और उन्हें दिखाएंगे कि कैसे दूसरों के अधिकारों के लड़ना जीवन का सबसे बड़ा आनंद है।
जब ये गुण सामूहिक मानसिकता में दिखाई देने लगते हैं और लोग समाज में दूसरों की पीड़ा को सहन करने से इंकार कर देते हैं, तो हम विप्लवी मानसिकता कहते हैं। जब यह मानसिकता समाज में जन संघर्ष और जन क्रांति में परिणत होती है, तो यह विप्लव कहलाता है। जो इस विप्लवी संघर्ष को सफल बनाने में और सब जीवों के लिए न्याय हासिल करने में पूरी तरह जुटे रहते हैं वे ही विप्लव के नेता हैं।  

प्रश्न 13.   कोई और वजह जो आपको पी बी आई आंदोलन  की सफलता के बारे में आश्वस्त करती है। 
उत्तर. हम सचेत हैं कि लक्ष्य तक पहुँचने के लिए हमें आंदोलन की निरंतरता और स्वरुप को बनाये रखना होगा। हम यह भी जानते हैं कि अगर हम असफल हुए तो हमें भी दूसरे आंदोलनों की तरह भुला दिया जाएगा। हम दुखी मानवता के दर्द को महसूस कर रहे हैं।


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