नैतिक की पहचान
आज जीवन के हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार मौजूद है,जिसने न सिर्फ मानव समाज को बल्कि पूरी सृष्टि को ही ख़तरे में डाल दिया है। आम लोगों द्वारा ज्यादातर मजबूरी में किये गए भ्रष्टाचार की अपेक्षा समाज के नेताओं व तथाकथित शिक्षित लोगों द्वारा किये गए भ्रष्टाचार से आज हमें ज्यादा नुकसान पहुँच रहा है।
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यदि हम स्थाई समाधान चाहते हैं तो हमें भ्रष्टाचार और उसके कारणों को समझना होगा। झूठ बोलना, पक्षपात करना या रिश्वत लेने-देने आदि को ही आज मुख्यतया भ्रष्टाचार समझा जाता है। परन्तु यह भ्रष्टाचार की अत्यंत सीमित परिभाषा है। भ्रष्टाचार का मतलब है भ्रष्ट आचरण या गलत व्यवहार। भ्रष्ट आचरण क्या है इसके लिए हमें जानना होगा कि सही आचरण क्या है। ऐसे कौन से नियम हैं जिनका पालन करने से कोई भी व्यक्ति नैतिक बन सकता है और भ्रष्टाचार से दूर रह सकता है ? ऐसे कौन से मानदण्ड हैं जिनके आधार पर हम नैतिक व्यक्ति को पहचान कर उसे महत्त्वपूर्ण कार्यों और नेतृत्व की जिम्मेदारी सौंप सकते हैं ?
नैतिक व्यक्ति के गुण
जो कोई भी एक आदर्श मनुष्य बन कर स्वयं एवं समाज को सही दिशा में ले चलने की इच्छा रखता है उसे स्वयं के प्रति और समाज के प्रति व्यवहार के कुछ विशेष नियमों का पालन करने के लिए संकल्पित होना होगा। ये आजमाए हुए नियम हर मनुष्य के द्वारा पालन किये जा सकते हैं चाहे वह किसी भी लिंग,जाति,संप्रदाय,देश,मजहब या भाषा का हो। ये नियम निम्नलिखित हैं:
- अहिंसा : नैतिक व्यक्ति किसी भी जीव को मन,वचन और कर्म से कष्ट नहीं पहुँचाएगा। वह व्यक्तिगत जीवन में अधिक से अधिक सहनशील होगा,हालाँकि जान बचाने के लिए की गई हिंसा, अहिंसा विरुद्ध नहीं है। सामूहिक जीवन जैसे परिवार या समाज पर आये किसी संकट का भी वह तुरंत उचित जवाब देगा।
- सत्य : दूसरे के हित को ध्यान में रख कर मन के भाव और वचनों का उपयोग करना सत्य कहलाता है। जैसा हुआ या हो रहा है वैसा ही बताना ‘ऋत'(फैक्चुअल ट्रूथ) कहलाता है। प्रायः सत्य और ऋत में कोई अंतर या टकराव नहीं होता परन्तु ऐसा होने पर सत्य का ही पालन किया जाना चाहिए।
- अस्तेय : चोरी न करना और किसी का भी जायज हक़ न मारना ‘अस्तेय’ कहलाता है। चोरी न करना ही नहीं बल्कि चोरी करने के विचार का भी त्याग कर देना होगा।
- अपरिग्रह : अपने और अपने पर आश्रित लोगों की वर्तमान व भविष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त व्यवस्था करने के पश्चात संपत्ति का संग्रह न करना अपरिग्रह कहलाता है। चूँकि दुनिया में भौतिक सम्पदा सीमित है इसलिये सामूहिक हित को ध्यान में रख कर नैतिक मनुष्य अनावश्यक संग्रह के मानसिक रोग से हमेशा बचने की कोशिश करेंगे।
- समदर्शिता : दुनिया की हर जीव और निर्जीव वस्तु को एक परम सत्ता या शक्ति (सुप्रीम पॉवर) की अभिव्यक्ति मान कर उसके साथ उचित व्यवहार करना समदर्शिता कहलाता है। ऐसा ही मनुष्य लिंग, रंग, जाति, भाषा, मजहब, देश आदि के छोटे-छोटे दायरों से ऊपर उठ कर बिना घृणा या मोह के हर परिस्थिति में उचित निर्णय ले सकता है।
- शौच : अपने शरीर,कपड़ों, भोजन तथा वातावरण को साफ़ रखना बाहरी शौच या सफाई कहलाता है। जबकि मन को घृणा, द्वेष, बदले की भावना,परनिंदा आदि से दूर रखने का सतत प्रयास करते रहना आतंरिक शौच कहलाता है। नैतिक बनने के इच्छुक व्यक्ति को दोनों तरह के शौच पर नजर रखनी होगी।
- संतोष : अपने द्वारा किये गए कार्य का जो भी उचित फल या मेहनताना मिले उसमें संतुष्ट होना संतोष कहलाता है। इससे मनुष्य लालच में नहीं फंसता और भोग की अंधी दौड़ में नहीं पड़ता। हालाँकि अपने हक़ के लिए लड़ना सन्तोष विरुद्ध नहीं है। अपरिग्रह का पालन किये बिना संतोष प्राप्त करना संभव नहीं है।
- तप : लक्ष्य प्राप्ति के लिए शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट उठाना तप कहलाता है। लक्ष्य जितना बड़ा होता है उसके लिए उतना ही अधिक कष्ट भोग करना पड़ता है। तप का पालन करने से मनुष्य की इच्छाशक्ति मजबूत होती है और मानसिक पवित्रता आती है। नैतिक मनुष्य के लिए तप का अर्थ है उन लोगों या जीवों के उत्थान के लिए कष्ट उठाना जो शारीरिक, मानसिक,आध्यात्मिक,सामाजिक या आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं।
- स्वाध्याय : मनुष्य जैसा देखता,सुनता और पढ़ता है धीरे-धीरे वैसा ही बन जाता है। इसलिए एक नैतिक मनुष्य नियमित रूप से महान सदविचारों का अध्ययन व चिंतन-मनन कर उन्हें अपने जीवन में उतारने का प्रयास करता रहता है। इसे ही स्वाध्याय कहा जाता है।
- ईश्वरनिष्ठा : मनुष्य थोड़े समय के लिए पृथ्वी पर आता है और सुख-दुःख का भोग कर वापस चला जाता है। उसका आना-जाना उसके नियंत्रण में नहीं है; दुनिया में भी जिन वस्तुओं पर उसका जीवन निर्भर है वे भी मूल रूप से उसके द्वारा नियंत्रित और निर्मित नहीं हैं। कोई शक्ति या सत्ता है जो यह सब नियंत्रित कर रही है। संस्कृत में उस नियंत्रक सत्ता को ईश्वर(कंट्रोलर) कहते हैं। ईश्वरनिष्ठा का अर्थ है ‘मन को उस नियंत्रक सत्ता की शरण में ले जाना’।
दुनिया में मनुष्य भय,लालच या श्रद्धा से ईश्वर के प्रतीकों के सामने सर तो झुका सकता है परन्तु उसके जीवन की सार्थकता उस सत्ता को अनुभव कर तृप्त होने में है। इसके लिए उसे आध्यात्मिक पद्धति का नियमित अभ्यास कर इस शरीर में रहते हुए ही मन के पार जाना होगा। जो इस प्रक्रिया में नहीं लगे हुए हैं और इस दुनिया को ही अंतिम सत्य मान कर पद,प्रतिष्ठा,पैसे और कामवृत्ति के पीछे निरंतर दौड़ रहे हैं, वे आखिरकार खुद को और दूसरों को ही नुकसान पहुँचाते हैं। जो नैतिक हैं या नैतिक बन कर देश,समाज या विश्व की अगुवाई करना चाहते हैं उन्हें जीवन को समग्रता में देखना सीखना होगा, तभी उन्हें दुनियावी सुख-दुःख डिगा नहीं पायेंगे।
- क्षमाशीलता : नैतिकों को व्यक्तिगत जीवन में अधिक-से-अधिक क्षमाशील होना चाहिए। यह गुण अहिंसा और मानसिक शौच से सम्बंधित है। यहाँ यह बात ध्यान रखने योग्य है कि किसी भी व्यक्ति को परिवार,समाज या देश की तरफ से किसी को क्षमादान करने का अधिकार नहीं है।
- आदर्श के लिए त्याग : आदर्श के लिए मनुष्य को व्यक्तिगत जीवन का सब कुछ न्यौछावर करने के लिए तत्पर रहना चाहिए।
- व्यक्तिगत उदाहरण प्रस्तुत करना : नेतृत्व करने वालों को व्यक्तिगत आचरण से दूसरों को सिखाना होगा अन्यथा वे पाखंडी समझे जायेंगे और लोगों पर उनकी बातों का कोई असर नहीं होगा। उन्हें अपनी कथनी और करनी में सदैव समानता रखनी है।
- परनिंदा से बचना : जो नैतिक हैं, वे परनिंदा,छींटाकशी,बातूनीपन, गुटबाजी आदि से दूर रहते हैं।
- जिम्मेदारी की भावना और अनुशासनप्रियता : नैतिक व्यक्ति जो भी कार्य हाथ में लेते हैं उसे जिम्मेदारी से निभाते हैं और भूल होने पर तुरंत गलती मान कर उचित दंड के लिए तैयार रहते हैं। नैतिक व्यक्ति हमेशा अनुशासन का पालन करते हैं।
- विनम्रता : विपरीत स्वभाव के व्यक्ति के संपर्क में आने पर भी नैतिक व्यक्ति खुद को घृणा, क्रोध और घमंड से दूर रखते हैं।
उपरोक्त गुण जिस व्यक्ति में जितनी ज्यादा मात्रा में मौजूद हैं वह उतना ही बड़ा नैतिक है और उसे उतना ही महत्त्वपूर्ण कार्यभार या पद दिया जाना चाहिए। सत्ता ऐसे लोगों के हाथ में ही केंद्रित होनी चाहिए, तभी विश्व का वास्तविक कल्याण सम्भव है।
(प्रउत-प्रणेता श्री प्रभात रंजन सरकार की शिक्षाओं पर आधारित)